योगीराज श्री श्री 1008 देवेन्द्र शरण ब्रह्मचारीजी महाराज (मौनी बाबा)

।। श्री गणेशाय नमः ।।
मंगलम् भगवान विष्णुः मंगलम् गरूड़ध्वजः ।
     मंगलम् पुण्डरीकाक्षः मंगलाय तनोऽहरिः ।।

श्री श्री 1008 प्रातः स्मरणीय श्री देवेन्द्र शरण ब्रह्मचारीजी महाराज
(मौनी बाबा)

एक परिचय
बंदउँ गुरू पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि ।
महामोह तम पुंज जासु बचन रवि कर निकर ।।


मौनी बाबा के गुरू बह्मलीन श्री शास्त्री बाबा
 


गुरुर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूदेवो महेश्वरः ।
गुरूः साक्षात्परब्रह्मा तस्मैं श्री गुरूवेनमः ।।


मौनी बाबा

बंदउँ गुरू पद पदुम परागा। सुरूचि सुबास सरस अनुरागा ।।
अमिअ मूरिमय चुरन चारू। समन सकल भव रूज परिवारू ।।
सुकृति शम्भु तन बिमल बिभूति। मंजुल मंगल मोद प्रसूती ।।
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी ।।
श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिव्य दृष्टि हियँ होती ।।
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवई जासू ।।
उधरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिरहि दोष दुख भव रजनी के ।।
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ।।



 

महात्माओं का चरित्रा अनेक चमत्कारिक कृत्यों से परिपूर्ण होता है। उनकी क्रियायें तत्काल बोधनीय नहीं होती। लोककल्याणार्थ ये संत साधारण परिवार में ही जन्म लेकर आगे बढ़ते हैं और अपने सद्कर्मों के द्वारा पूजनीय पद को प्राप्त करते हैं। इसलिए कहा गया है कि ‘‘लोकोत्तराणां चेतांसि को नु विज्ञातुमर्हति’’।

भारत वर्ष आदिकाल से ही संतों, महात्माओं एवं गुरूओं का देश रहा है। योगीराज श्री श्री 1008 देवेन्द्र शरण ब्रह्मचारीजी महाराज (मौनी बाबा) इन्हीं प्राचीन संतों (देवराहा बाबा, नीमकरोली बाबा, बर्फानी दादा) की परम्परा के वर्तमान हिमालयी संत हैं। ऐसे उच्च कोटि के साधक-संत श्री श्री मौनी बाबा को सद्गुरू के रूप में पाकर हम जैसे लाखों भक्त धन्य हुए।

श्री श्री मौनी बाबा जैसे सद्गुरू एवं संत के बारे में चर्चा करना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है, परन्तु श्री गुरूदेव की असीम अनुकम्पा और आशीष का फल है कि उनके जीवनवृत के सम्बन्ध में कुछ लिखने का अवसर एवं आज्ञा प्राप्त हुआ है। जिन महापुरूष के कृत्य लोक कल्याण एवं सांसारिक जीव मात्र के प्रति दयालुता से ओत प्रोत होते हैं, उनकी गणना इस अशांत और आतंकपूर्ण वातावरण में मनुष्य रूप में नहीं की जाती है। वे ईश के अंश के रूप में अपने कर्मों का विस्तार इस धरती पर इस प्रकार करते हैं कि उनकी प्रेरणा पाकर लोग केवल इहलोक के सुख-शान्ति की ही नहीं बल्कि परलोक और जन्म-जन्मांतर के लिए अक्षय सुख प्राप्ति हेतु पुण्य संचय करते हैं। जब संसार उनके मार्गदर्शन पर चलते हुए अपने सम्पूर्ण सुख की प्राप्ति में दूसरों को हानि पहुंचाए बिना अध्यात्मिक चेतनाओं से पूरिपूर्ण हो जाता है तो स्वतः लोग उन्हें अवतारी पुरूष के रूप में स्वीकार कर लेते है। श्रद्धेय श्री देवेन्द्रशरण ब्रह्मचारी जी महाराज (मौनी बाबा) का जीवनवृत कुछ ऐसे ही चमत्कारिक कृत्यों से भरपूर है जिससे संसार में वे अवतारी पुरूष के रूप में जाने जाते हैं।

मिथिलांचल ने अनेक विद्वानों, संतों, राजाओं और कर्मकाण्डियों को जन्म देने का गौरव आदिकाल से प्राप्त किया है और उसी की कड़ी के रूप में कलिकाल में भी जगत जननी जनक नन्दनी माँ सीता की जन्मभूमि मिथिला में श्री देवेन्द्रशरण ब्रह्मचारी ‘‘मौनी बाबा‘‘ का अविर्भाव आज से लगभग आधी शती पूर्व अर्थात् 1950 ई0 के आसपास दरभंगा जिला (बिहार राज्य) के अन्तर्गत खिरोही नदी (प्राचीन नाम दुग्धवती) के तट पर बसे मुरैठ ग्राम में हुआ था। इनके पिता भारद्धाज गोत्रीय 
स्व0 नर्मदेश्वर झा पुलिस विभाग में एक साधारण पद पर काम करते थे तथा माँ कुसुमावती अपने धार्मिक कृत्य, पूजा-पाठ, ब्राह्मण - भोजन, तुलसी-पूजा, एकादशी व्रत आदि-आदि के लिए विख्यात थी। यह कोई साधारण महिला नहीं बल्कि वसंतपुर गाँव के मिश्र परिवार के उच्च कुल में इनका जन्म हुआ था, जहाँ सहिष्णुता, दयालुता, परोपकार, मृदुभाषिता, सदाचार आदि गुणों की प्रशंसा मुक्तकंठ से की जाती रही है। इन्हीं धर्म पारायण दंपत्ति (श्री नर्मदेश्वर झा एवं श्रीमती कुसुमावती) के आंगन में प्रथम पुत्रा के रूप में श्री महाराज जी का जन्म हुआ। जन्मोपरांत, घर एवं परिवेश का आनंदमय वातावरण एवं इसकी निरंतरता किसी विशिष्ट व्यक्तित्व के आविर्भाव को इंगित कर रहा था। संसार को दिव्य उपदेश देने वाले श्री श्री मौनी बाबा का जन्म 16 अप्रैल 1950 को हुआ। पालकों ने अपने इस पुत्रा को पालने में ही परख लिया। बड़े चाचा ने इस नवजात का नाम देवेन्द्र शरण रखा। आँखे स्वर्णिम, विशाल ललाट, घुँघराले बाल, गौर वर्ण, उन्नत नासिका, चन्द्र के समान मुख मण्डल और बिलकुल शांत चित आदि लक्षणों से माता-पिता को किसी महापुरूष को अपने यहाँ अवतार लेने का ज्ञान होता था। विशेषकर इस बालक ने अपने बड़े चाचा स्व. पं0 उमानाथ झा के साथ जब आसन लगाकर बैठना आरम्भ कर दिया और पूजा-पाठ एवं आध्यात्मिक गतिविधियों में रूचि रखने लगा तो माता-पिता को विश्वास हो गया कि यह बालक निश्चय ही संसार के दुःखों को दूर करने के लिए एक दिन घर-द्वार छोड़ देगा। प्राथमिक शिक्षा इनकों अपने ही गाँव में मिली। देवेन्द्र को बचपन में लोग चिरंजीव कहते थे फिर इन्द्रजीत कहने लगे। किन्तु उच्च विद्यालय, कमतौल में इनका जब नामांकन कराया गया तो इनका सही नाम देवेन्द्र शरण ही रहा। जब ये उच्च विद्यालय में पढ़ रहे थे तभी 13 वर्ष की आयु में इनका यज्ञोपवीत संस्कार कराया गया।

विद्यालय की शिक्षा समाप्त कर देवेन्द्र ने कुछ दिनों के लिये दरभंगा के मारवाड़ी महाविद्यालय में 1969 में अध्ययन किया। स्नातक स्तर की पढ़ाई के लिए इन्होंने अपना नामांकन राधाकृष्ण गोयनका कॉलेज, सीतामढ़ी, बिहार राज्य में 1971 में करवाया। यहाँ इन्होंने रसायन शास्त्रा में प्रतिष्ठा के साथ स्नातक शिक्षा की उपाधि प्राप्त की। इसी अध्ययन की अवधि में श्री देवेन्द्र को यह जानकारी प्राप्त हुई कि उनके मित्र श्री विजय कुमार झा के पिता पं. श्री श्यामाकान्त झा ‘‘शास्त्री बाबा’’ वेद, रामायण, तंत्रा, ज्योतिष आदि के प्रकाण्ड विद्वान है और वे लोगों को दीक्षा भी देते हैं। अपने विचारों के अनुकूल देवेन्द्र को मानों एक ज्योति का आभास हुआ और वे शीघ्र शास्त्री बाबा के दर्शनार्थ अपने मित्र विजय के साथ निकल पड़े। बाबा ने श्री देवेन्द्र के मुखकमल को देखा और उन्होंने जान लिया कि यह कोई साधारण बालक नहीं बल्कि कोई पूर्वजन्म का सिद्ध तपस्वी है। शास्त्री बाबा ने अनुग्रह कर गुरूमन्त्रा की दिक्षा दी। इसी दिन से श्री शास्त्री बाबा ने देवेन्द्र को ‘‘ब्रह्मचारी’’ कहना आरम्भ किया। ब्रह्मचारी इसी दिन से पीले रंग का अधोवस्त्र, सफेद रंग की गंजी तथा कंधे पर पट्टीदार अंगोछा से ब्रह्मचारी स्वरूप को धारण किया।

श्री मौनी महाराज ने मौन व्रत 20 मार्च 1974 को धारण किया। इसके पहले से ही वे फलाहार व्रत कर रहे थे। दो व्रत (मूक व्रत और फलाहार व्रत) अब तक चल रहे हैं। मौनी महाराज ने अपनी सिद्धि की पूर्णता के लिये विभिन्न तीर्थों में अपनी तपस्या का कार्यक्रम अपनाया। सीतामढ़ी (बिहार राज्य) में इन्होंने अपने आरम्भिक तपोजीवन में सबसे पहले 1974 में लखनदेई नदी के जल में खड़े होकर 24 घंटे गायत्री जप करते रहे फिर कुछ दिनों के बाद 48 घंटे जप करते रहे और पुनः कुछ दिन विराम देने के बाद उन्होंने सात दिनों तक लगातार (दिन-रात) अविराम जप किया। कई लोग बताते है कि जल में लगातार खड़े रहने से बाबा का पाँव मछली एवं जल कीड़े आदि के काटने से क्षत-विक्षत हो गया था, किन्तु वे कभी ध्यान से विचलित नहीं हुए। मौनी बाबा की यह तपस्या श्री शास्त्री बाबा की देखरेख में हुआ।

प्रथम गुरू श्री शास्त्री बाबा एवं गुरूमाता श्रीमती दुर्गा झा से आशीर्वाद प्राप्त कर मौनी बाबा (देवेन्द्र) अपने पिता के पास हजारीबाग पहुँच गये। देवेन्द्र ने अपने पिता से यह याचना की कि वे किसी शमशान में तपस्या करना चाहते हैं। पुत्र की बात को सुनकर पिता ने कहा कि तपस्या करना अच्छी बात है तुम ऐसा करो कि लगनमा (दरभंगा, बिहार) गाँव के पास एक विख्यात तपस्या योग्य श्मशान भूमि है। तुम वहीं जाकर तपस्या करो। देवेन्द्र (मौनी बाबा) को पिता की बात जँच गई। वे लगनमा पहुँचकर पहले ग्यारह दिनों तक फिर तेरह महीनों तक लगातार श्मशान भूमि में खिरोही नदी के तट पर तपस्या की। इनकी तपस्या के काल में लोगों को ऐसा आभास होता था कि श्री देवेन्द्र ब्रह्मचारी की कुटिया के सामने रात को कोई पहरा दे रहा है। कुछ लोगों को यह भी कहते सुना गया कि ब्रह्मचारी की कुटिया के समीप रात भर कुछ न कुछ भयंकर आवाज होती रहती है। यदा कदा लोग भी श्री देवेन्द्र ब्रह्मचारी की तपस्या को देखने जाते थे। पक्षियों का झुण्ड, सर्पों की उपस्थिति आदि-आदि बातों को लेकर तत्कालीन दर्शकों के बीच अनेक प्रकार की कथाएँ प्रचलित है। तपस्या के बाद श्री देवेन्द्र ब्रह्मचारी ने विष्णु यज्ञ का आयोजन किया। 1975-76 में आयोजित इस यज्ञ में एक चमत्कारिक घटना घटी। नौ दिनों के उक्त यज्ञ में नदी की धारा अति क्षीण बह रही थी। यज्ञ में दिनों दिन लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। धारा की क्षीणता के कारण यज्ञ मण्डप के पास नदी से जल लाना कठिन हो रहा था। इस समस्या को लेकर भक्तगण ब्रह्मचारीजी के पास गये। ब्रह्मचारी ने अपने गुरू शास्त्री बाबा के आदेश से इस नदी में मंत्रों के माध्यम से कमला नदी का आह्वान किया और तत्क्षण उस नदी में जल भर गया जिसका विवरण उस यज्ञ के आचार्य पं. श्री रामनन्द मिश्र और वैदिक पं. श्री बाबू साहब मिश्र ने कई यज्ञ स्थलों पर दिया है।

छात्र जीवन काल में इस प्रकार की तपोनिष्ठा को देखकर माता-पिता को इच्छा हुई देवेन्द्र शादी कर ले और गृहस्थ जीवन चलावे किन्तु पुत्र देवेन्द्र जब शादी के लिए तैयार नहीं हुआ तो माता-पिता ने अपने पुत्रा के गुरू ‘शास्त्री बाबा’ के पास पैरवी लगाई कि वे देवेन्द्र को शादी के लिये आदेश करें। ब्रह्मचारी श्री देवेन्द्र को इसकी सूचना मिल गई तो लगता है कि इससे पिण्ड छुड़ाने के लिए ब्रह्मचारी देवेन्द्र ने एक उपाय निकाला। वे दिगम्बर जैन साधु की तरह रहने लगे। उसी समय शास्त्री बाबा ने ब्रह्मचारी के माता-पिता को कहा कि देखो तुम जिसकी शादी की बात कर रहे हो वह दिगम्बर है उसे संसार की माया में क्यों बांधना चाहते हो ? माता-पिता को निरूत्तर घर लौटना पड़ा।

श्री देवेन्द्र ब्रह्मचारी का तपोव्रत आगे बढ़ा। उन्होंने इसके लिए पहली यात्रा का आरम्भ हरिद्धार-ऋषिकेश से किया। वहाँ से उन्होंने कुछ अंतर्प्रेरणा प्राप्त की। उक्त तीर्थ में कुछ दिन बिताने के बाद वे फिर सीतामढ़ी आ गये और एक वर्ष के लिए अनवरत रामधुन का अनुष्ठान स्थानीय फुलबाबा की कुटिया में आरम्भ किया। रामधुन के इस कार्यक्रम में गाँव-गाँव के लोग आये थे। रामधुन के सम्पूर्ण सात्विक वातावरण के कारण ब्रह्मचारी के प्रति लोगों ने स्वेच्छापूर्वक गरीबों को दान दिये। भूखे को भोजन, निर्वस्त्रा को कपड़े तथा रोगियों के लिये इलाज की व्यवस्था स्वयंस्फूर्त हो गयी।

सीतामढ़ी में रामधुन के कार्यक्रम की समाप्ति के बाद ब्रह्मचारीजी 1978 में दल्ली राजहरा आ गये। यह दल्ली राजहरा मध्यप्रदेश वर्तमान में छत्तीसगढ़ के दुर्ग जनपद का एक अंश है। मौनी बाबा को अपने पहले के तपस्या के क्रम में ऐसा आभास हुआ था कि महामाया जाओ। महामाया दल्ली राजहरा से लगभग तीस किलोमीटर आगे है। यह पूरा क्षेत्रा लौह-खनिज से भरा पड़ा है एवं यहाँ पर घनघोर जंगल है। पूरे जंगल में जंगली जानवर बाघ, शेर, चीता आदि रहते थे। दूर-दूर तक कोई आदमी नहीं रहता था। महामाया जंगल में मौनी बाबा अपनी पिछली तपस्या के क्रम में आभास हुये जगह को खोजते हुये उस जगह पर पहुँचे। वहाँ की नीरवता ने मौनी बाबा को बहुत आकृष्ट किया। वे वहीं तपस्या पर बैठ गये। मौनी बाबा जहाँ तपस्या पर बैठे वहाँ पहाड़ी पर खाई के रूप में जल स्रोत है, जिसे देखने से पता चलता है कि ये तीनों अलग-अलग दिशाओं से आ रहे हैं। इसे लघु त्रिवेणी के नाम से जाना जाता है। त्रिवेणी के इस संगम के तट पर श्री गणेशजी का मन्दिर है। कहते हैं कि गणेशनुमा एक पत्थर को कारीगरों ने श्री गणेश की आकृति दी जो इस मन्दिर में विराजमान हैं। गणेश मन्दिर से लगभग 80 फीट की उँचाई पर माँ महामाया का मन्दिर है। मौनी बाबा जब पहली बार वहाँ पहुँचे तो ऐसा लगता था कि यहाँ पर सालों से कोई नहीं आया है। पूरा मन्दिर जीर्ण शीर्ण अवस्था में था। मौनी बाबा ने दोनो मन्दिर की साफ-सफाई करके तपस्या के साथ-साथ सुबह-शाम पूजा अर्चना शुरू कर दी। गणेश मन्दिर से माँ महामाया मन्दिर के बीच पहले केवल एक पगडंडी थी, किन्तु भक्तों ने अब सोपानमार्ग बनवा दिया है। इस एकान्त सुरम्य स्थान में आत्मविमुख होकर कुछ देर बैठिये आपको अलौकिक आनन्द का अनुभव होने लगेगा।

इस मन्दिर में शारदीय नवरात्रा और चैत्र नवरात्रा मेला लगता है। भक्तगण यहाँ अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए ज्योति कलश जलाते हैं, जिसकी सुरक्षा बगल के गाँव के बैगा लोगों के द्वारा की जाती है। वैस यहाँ बराबर भीड़ रहती है, किन्तु उक्त नवरात्रों में भक्तगण हजारों की संख्या में आते हैं।

1978 के नवरात्रा के आरम्भिक दिन से ही श्रेद्धेय श्री मौनी बाबा ने त्रिवेणी संगम के निकट स्थित गणेश मन्दिर के पास अपने तपोव्रत को आरम्भ किया। पास के गाँव के लोगों ने उनके लिए एक कुटीर बनवा दिया। यह स्थान उस समय बड़े-बड़े वृक्षों से इस प्रकार घिरा था कि यहाँ जाने में लोग डरते थे। किन्तु मौनी बाबा द्वारा तपस्या कार्यक्रम आरम्भ किये जाने के कारण उनके दर्शनार्थ लोगों की भीड़ वहाँ आने लगी और वह भयंकर स्थान सुरम्य स्थान में बदलने लगा। श्रेद्धेय श्री मौनी बाबा के दर्शनार्थ जब दूर-दूर से लोग आने लगे तो सम्पन्न भक्तों ने यहाँ की सुविधा पर ध्यान देकर सीढि़याँ बनवा दी तथा मन्दिर का जीर्णोंद्धार धीरे-धीरे शुरू हुआ। मौनी बाबा ने यहाँ पर वर्ष भर घोर तपस्या की। यहाँ की तपस्या में इनका दैनिक जीवनी अत्यंत रोमहर्षक माना जाता है क्योंकि जिस स्थान पर महाराजजी तपस्या कर रहे थे उस स्थान पर सर्पों का बसेरा था। नित्य नये रूपवाले भयंकर सर्प वहाँ उपस्थित होते थे तथा रात में भयंकर पशुओं की आवाज आती थी। किन्तु मौनी बाबा अविचल भाव से तपस्या में संलग्न थे। भयंकर झंझावातों के बीच वर्षा ऋतु में अतिप्रबल शीतकारी हवाओं से युक्त जाड़े के समय में तथा तीव्र दुःखद आतप से युक्त गर्मी के दिनों में भी बाबा की तपस्या अविचल भाव से चल रही थी। इस प्रकार वर्ष भर तपस्या के बाद बाबा ने एक दिन भक्तों को इंगित निर्देश से बताया कि माता आद्या शक्ति प्रसन्न हैं और उनके आदेश से मुझे अब कुछ दिनों के लिये इस स्थान को छोड़कर दूसरी जगह तपस्या हेतु जाना है। भक्तों की आँखों में अश्रुविन्दु छलकने लगी तो बाबा ने भक्तों से कहा कि कुछ ही महीनों में मैं पुनः इस स्थान पर वापस आ जाऊँगा। उसके बाद बाबा ने भक्तों से कहा कि उज्जैन में कुम्भ मेला लग रहा है मैं वहीं जा रहा हूँ एवं बाबा उज्जैन में कुम्भ मेला में चले गये। कुम्भ मेले में मौनी बाबा को श्री श्री 1011 कायाकल्पी अमरकण्टक नर्मदा निवासी बर्फानी दादाजी का सान्निध्य प्राप्त हुआ। कुम्भ मेले की समाप्ति के बाद बर्फानी दादा के साथ श्री मौनी बाबा उनके आश्रम में नर्मदा के उद्गम स्थल अमरकण्टक के पास पहुँच गये। बर्फानी बाबा से सन्यास दीक्षा प्राप्त की, तपश्चर्या एवं सिद्धि का अगला कार्यक्रम आरम्भ हुआ जो लगभग एक वर्ष चला।

इधर बीच में सीतामढ़ी (बिहार) में मौनी बाबा के सम्बन्ध में अनेक चर्चायें होने लगी। कुछ लोगों के मुँख से यह कहते सुना गया कि ब्रह्मचारीजी तपस्या करने किसी पर्वत गुफा में चले गये हैं। लोगों को यह भी कहते सुना गया कि कुम्भ मेले के बाद ब्रह्मचारीजी किधर गये, किसी को पता ही नहीं है। धर के लोग इनकी खोज में परेशान हुये। बाद में पिताजी को कहीं से यह मालूम हुआ कि एक तिरहुतिया ब्रह्मचारी बालक अमरकण्टक में तपस्या कर रहा है। ममता ने पिता को अमरकण्टक जाने के लिये बाध्य कर दिया। पिताजी अमरकण्टक गये तो पता चला कि बर्फानी बाबा (कायाकल्पी) के आश्रम के पास हिमालय की गुफा के भीतर तिरहुतिया ब्रह्मचारी ध्यान मग्न रहते हैं। पिताजी जब गुफा के पास गये तो गुफा बन्द मिली। एक सप्ताह तक प्रतिदिन दिनभर बाहर रहने के बाद एक दिन मौनी बाबा गुफा से बार निकले तो पिता को अपने साधु पुत्रा का दर्शन हुआ। आँखों से आँसू छलक आये। ममता, अंतर्व्यथा, संतोद्व आदि सभी भावनाओं को दबाकर पिता को चुपचाप वहाँ से घर की ओर चलना पड़ा। अन्तर्हृदय से पिता ने पुत्रा के लिए इस समय सिद्धि की प्राप्ति हेतु आशीर्वाद दिया। ऐसा कहा जाता है कि पूज्यपाद देवेन्द्रशरण ब्रह्मचारी ‘‘मौनी बाबा’’ को सम्पूर्ण सिद्धियों की प्राप्ति बर्फानी बाबा की ही कृपास से प्राप्त हुई है। बर्फानी बाबा मौनी बाबा के अवतारी स्वरूप को कुम्भ मेले के समय प्रथम मुलाकात में ही भलीभांति जान गये थे। अतः अपने आश्रम में लाकर उन्हें हिमालय की गुफा में जप करने का आदेश दिया और जप का सम्पूर्ण कार्यक्रम पूरा हुआ तो गुरू बर्फानी बाबा ने शिष्य की कर्तव्यनिष्ठा से अभिभूत होकर आशीर्वाद के रूप में अपनी सारी सिद्धियाँ प्रदान की।

गुरू से आशीर्वाद के रूप में सम्पूर्ण सिद्धियों की प्राप्ति से मौनी महाराज का मुखमंडल अब उसी प्रकार परिवर्तित और विकसित हुआ, जिस प्रकार सूर्य की रश्मि से कमल विकसित हो जाता है। अस्तु बर्फानी बाबा से आज्ञा प्राप्त कर मौनी बाबा 1981 में दल्ली राजहरा (छत्तीसगढ़) निकल पड़े। महामाया पहुँचकर तत्काल उन्होंने यज्ञ आरम्भ करवाया। इस समय चैत्र महीने का नवरात्रा होने वाला था। अतः शतचण्डी यज्ञ का आयोजन हुआ। इस यज्ञ में 31 पंडित उपस्थित हुए। इनमें
स्व. युगल किशोर झा तथा श्री निरालाजी प्रतापगढ़, पट्टी तहसील (उत्तर प्रदेश) के नाम उल्लेखनीय है।

इस यज्ञ में मुख्य यजमान श्री राजेन्द्रशरण (तत्कालीन महामाया महंथ) थे। इस यज्ञ के सम्बन्ध में कई आश्चर्यकारी घटनाओं का उल्लेख श्री जे. बी. झा (भूतपूर्व वरिष्ठ अभियांत्रिक) ने भक्तों के बीच किया है। मौनी महाराज के द्वारा यज्ञ की उद्घोषणा होते ही वहाँ राजनंदगाँव, दल्ली राजहरा, भिलाई (दुर्ग), रायपुर, सीतामढ़ी (बिहार), गुजरात आदि स्थानों के भक्तगण उपस्थित हो गये। इन भक्तों की उपस्थिति के साथ अण्डज, पिण्डज आदि प्राणियों की उपस्थिति सभी को विस्मयकारी लग रही थी । श्री जे. बी. झा बताते हैं कि यहाँ यज्ञ की सामग्री कैसे और किधर से पहुँच गई, किसी को पता ही नहीं चला। एक भक्त ने बाबा से प्रश्न किया कि बाबा यज्ञ का मुहूर्त बीतता जा रहा है, किन्तु यज्ञ की सामग्री तो अभी तक नहीं पहुंची है तो बाबा ने इंगित निर्देश से भक्तों को आश्वस्त किया कि तुम लोग किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करो मुहूर्त बीतने के पहले ही सामग्री पहुंच जायेगी। भक्तों के बीच इस प्रकार का निर्देश बाबा द्वारा दिया ही जा रहा था कि एक गाड़ी यज्ञ सामग्री के साथ वहाँ पहुंच गई तथा लाने वाले ने बताया कि रास्ते में यातायात बाधित थी, इसीलिए आने में विलम्ब हुआ। अस्तु, यज्ञ सम्पादित हुआ और पूर्णाहुति के दिन पंडितों को दक्षिणा देने का जब समय आया तो देखा गया कि इसके लिए राशि बिल्कुल है ही नहीं। सभी उहापोह की स्थिति में थे और महाराज सबों की मनःस्थिति का अध्ययन कर रहे थे और हँस भी रहे थे कि ये लोग व्यर्थ में चिन्ता करते हैं। इतने में श्री राजेन्द्र तिवारी नाम का एक भक्त 4,500.00 रूपये लेकर पहुंच गया। आश्चर्य तो यह है कि दक्षिणा हेतु केवल इतनी राशि की आवश्यकता थी। ये सभी चमत्कारिक कार्य संतों के सान्निध्य में संभावित होते हैं। दूर-दूर तक यह समाचार फैल गया कि मौनी महाराज के पास अपूर्व दैविक शक्तियाँ हैं, जिनके द्वारा इस भीषण जंगल में भी अत्यन्त सफलतापूर्वक यज्ञ-विधान निर्विघ्न समाप्त हुआ है।

1981 की शतचण्डी यज्ञ की सफलतापूर्वक समाप्ति के बाद मौनी महाराज भक्तों के आग्रह से कभी राजनांदगाँव, कभी दल्ली राजहरा और कभी पुनः महामाया आते-जाते रहते थे। इसी बीच भक्तों ने आपस में विचार-विमर्श के बाद इस आवश्यकता को महसूस किया कि मौनी महाराज के लिए एक ऐसी कुटिया का निर्माण होना चाहिए जहाँ अधिक से अधिक संख्या में भक्तगण वहाँ पहुंचकर बाबा के सान्निध्य का आध्यात्मिक लाभ ले सकें। इसके लिए दल्ली राजहरा में राममंदिर के निर्माण की योजना बनी।

1982 में वर्तमान राममंदिर के लिए भूमिपूजन और शिलान्यास हुआ। इस अवसर पर स्व. पं. नर्मदेश्वर झा, स्व. मनोहरलाल जैन, श्री ऋषिचन्द्र झा, श्री ओंकारमणि शुक्ल आदि-आदि गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे। यहाँ संतश्री वैदेही शरण विशेषरूपेण उल्लेखनीय है। इनकी अवस्था इस समय 18 वर्ष की ही थी, किन्तु ये महाराज जी के कार्यक्रमों में सम्पूर्ण सहभागिता समर्पित करने के लिए अपनी नौकरी छोड़ दी। पहले वे महाराज जी के साथ महामाया में रहते थे और बाद में महाराज जी के आदेश से राममंदिर निर्माण की देखरेख में भक्ति भावना से अपने को समर्पित कर दिया। 1982 से लेकर 1988 तक मंदिर का निर्माण कार्य चला। इस निर्माण में न्यू कैलिफ़ोर्निया के श्री रामदास तथा शारदा बहन के योगदान के साथ स्थानीय भक्तों की समर्पित भूमिक सराहनीय रही। 1988 में संसार को चलाने वाले श्री राघवेन्द्र सरकार इस मंदिर में वैदिक मंत्रों के उच्चारण के साथ प्रतिष्ठित हुए। श्रीराम, सीता, लक्ष्मण तथा हनुमान के इस दरबार में अब भक्तों की अपार भीड़ लगने लगी। रामधुन का विस्तृत आयोजन हुआ। छप्पन प्रकार के भोग की प्रस्तुति के लिए भक्तगणों की समर्पण भावना प्रशंसनीय रही। अब इस राममंदिर के परिसर में मौनी महाराज के आदेश से यज्ञशाला, दातव्य औषधालय, शिवमंदिर आदि का निर्माण हो चुका है तथा भक्तों को ठहरने के लिए विशेष सुविधायें उपलब्ध करायी गयी है। अब मौनी महाराज अधिकतर यहीं अपनी योग-साधना करते हैं तथा चतुर्मास के दिनों में भक्तों की यहीं भीड़ उमड़ती है।

अस्तु, मौनी महाराज की जीवनी की पुण्यसलिला में स्नान करते हुए हम लोग अब आगे बढ़े तथा उनके विलक्षण कार्यक्रमों से आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण करें।

मौनी बाबा दर्शन, पूजन, आर्शीर्वाद, सत्संग एवं यज्ञ द्वारा सामान्य जन, समाज, देश एवं पूरे संसार का कल्याण करते हैं। सामान्य जन को मौनी बाबा का दर्शन, पूजन, आशीर्वाद एवं सत्संग हमेशा सुलभ रहता है। मौनी बाबा के दर्शन, पूजन, आशीर्वाद एवं सत्संग के लिये भक्तों ने अलग-अलग जगहों पर मन्दिर यज्ञशाला एवं आश्रम का निर्माण करवा रखा है। जिसकी व्यवस्था स्थानीय स्तर पर भक्तों द्वारा किया जाता है। सभी मन्दिरों एवं आश्रम का निर्माण एवं व्यवस्था बहुत ही सादगीपूर्ण किया गया है। वहाँ की नीरवता लोगों को बहुत आकृष्ट करती है। सभी मन्दिर, आश्रम एवं वहाँ की व्यवस्था एकान्त सुरम्य स्थान की तरह लगती है। आत्मविमुख होकर अगर आप वहाँ पर कुछ देर बैठिये तो आपको अलौकिक आनन्द का अनुभव होने लगेगा। मौनी बाबा अलग-अलग आश्रमों पर प्रकृति एवं स्थानीय लोगों के कल्याण के बीच तारतम्य बिठाते हुये बारी बारी से समय व्यतीत करते हैं। वे दर्शन, पूजन, आशीर्वाद एवं सत्संग के लिए भक्तों के बीच सुबह नौ बजे से शाम के नौ बजे तक सुलभ रहते हैं। उनका दर्शन, पूजन, आशीर्वाद एवं सत्संग आमजन को निर्बाध रूप से हमेशा सुलभ रहता है। मौनी बाबा गाँव, समाज, देश एवं संसार के कल्याण के लिये अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग समय में देश एवं काल के अनुसार यज्ञ का आयोजन करते हैं। यज्ञ का आयोजन शुरू से अन्त तक भक्तों के सहयोग से उनके संरक्षण में किया जाता है। यज्ञ के आयोजन के समय तरह-तरह के अलौकिक अनुभव एवं अलौकिक घटना भक्तों को देखने को मिलती है। जिसकी चर्चा आमजनों के बीच हमेशा होती रहती है एवं वे उसे बाबा का चमत्कार मानते हुये उसे स्वीकार करते हैं।

आम आदमी मौनी बाबा के रूप में भगवान का दर्शन करके अपना जीवन धन्य करते हैं। मौनी बाबा का दर्शन, पूजन एवं सत्संग आम आदमी को हमेशा सुलभ रहता है।

मौनी बाबा के दर्शन, पूजन, सत्संग एवं आशीर्वाद से प्राणियों के दुखों का नाश होता है एवं सुखों की प्राप्ति होती है, पापों से मुक्ति मिलती है एवं कुविचार सुविचार में बदल जाते है। उसके बाद प्राणी सुख, शान्ति एवं समृद्धि से परिपूर्ण होकर परोपकार के रास्ते पर चलते हुये अपना एवं जगत के कल्याण के काम में लग जाता है। हमें मौनी बाबा का दर्शन, पूजन एवं सत्संग करके अपने जीवन को धन्य बनाना चाहिए।

मौनी बाबा भक्तों द्वारा स्थानीय स्तर पर निर्मित एवं संचालित निम्नलिखित मन्दिर सह आश्रमों पर प्रकृति एवं स्थानीय लोगों के कल्याण के बीच में तारतम्य बिठाते हुये बारी-बारी से आम लोगों के दर्शन, पूजन, सत्संग एवं आशीर्वाद के लिये सुलभ रहते हैं।

1. मौनी बाबा मन्दिर सह आश्रम
महामाया माइन्स, जनपद - दुर्ग, छत्तीसगढ़

2. मौनी बाबा मन्दिर सह आश्रम
दल्ली राजहरा, जिला - दुर्ग, छत्तीसगढ़

3. मौनी बाबा मन्दिर सह आश्रम
मिथिला धाम, बैला पसरा, राजनन्द गाँव, छत्तीसगढ़

4. मौनी बाबा मन्दिर सह आश्रम
भिलाई, सैक्टर - 7, जिला दुर्ग, छत्तीसगढ़

5. मौनी बाबा मन्दिर सह आश्रम
अनुपमा चित्र मंदिर के सामने, 117 डाबर ग्राम, जिला - जगदलपुर, (छत्तीसगढ़)

6. मौनी बाबा मन्दिर सह आश्रम
चांदपुर, देवधर

7. मौनी बाबा मन्दिर सह आश्रम
बेनीपट्टी, मधुबनी, बाबा घाट, लखनदेई नदी, सीतामढ़ी, बिहार

8. मौनी बाबा कुटिया
डुमरा रोड, टेलीफोन टावर के निकट, सीतामढ़ी, बिहार

9. मौनी बाबा मन्दिर सह आश्रम
ग्राम - पोस्ट - लगनवा, जिला दरभंगा, बिहार

10. मौनी बाबा मन्दिर सह आश्रम
रानीपुर बाइपास, दरभंगा, बिहार

11. मौनी बाबा मन्दिर सह आश्रम
डाबर ग्राम, चांदपुर, देवधर, झारखण्ड

12. मौनी बाबा मन्दिर सह आश्रम
बेनीपट्टी, भटहीसेर, मधुबनी, बिहार

13. मौनी बाबा मन्दिर सह आश्रम
सजंय कॉलोनी, नरेला, दिल्ली



मौनी बाबा जैस सन्त के जीवनवृत को प्रस्तुत करना कोई साधारण बात नहीं, क्योंकि श्री गुरूदेव परमात्मा के स्वरूप होते हैं और परमात्मा को तो ‘नेति नेति‘ के ही रूपम में स्वीकार किया गया है। अतः जो उनके बारे में यह कहता है कि ‘मैं जानता हूँ, वह अज्ञानी है और जो यह कहता है कि ‘मैं जान नहीं पाता’ वही सही जानकार है। फिर भी मैंने अपनी लेखनी से उनके बारे में जो लिखा है, वह लोगों के मुखों से जैसे सुना, समझा, उसी का अनुवाद कर रहा हूँ। ईश के अंश रूप में अवतरित इस महापुरूष की जीवनी से सम्बन्धित इस अभिलेख में अगर कोई विपरीत बातें सुनने को मिलती है तो उसे दिव्य पुरूष का चमत्कार समझिये और इसके लिए क्षमाप्रार्थी के रूप में नत मस्तक हूँ।

संतो के चरित के गुणगान का विराम अलौकिक आनन्द के अवरोध के कारण किसी भी भक्त को पसन्द नहीं होता किन्तु संतों के द्वारा ही दिया गया निर्देश कि कर्त्तव्य की परांगमुखता से हमेशा बचना चाहिए, को ध्यान में रखकर मैं अपनी लेखनी को यहीं विराम देता हूँ।

अन्त में सभी आम जन एवं भक्तों से अनुरोध करता हूँ कि मैने मौनी बाबा के बारे में जो कुछ भी लिखा है, उसमें अगर कुछ गलत है या सुधार की जरूरत है तो निःसंकोच मुझे सुझाव देंगे।




इंजीनियर बी. के. सिंह अपनी धर्मंपत्नी कविता सिंह के साथ मौनी बाबा से आशीर्वाद लेते हुए

 

भक्तों के आश्रित
ई. बी.के. सिंह
अध्यक्ष, ब्रह्मचारी बाबा सत्संग समिति, नई दिल्ली
मोबाइल: 09911570255

www.bbss.org.in


 

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Message by Er. B K Singh

Chairman, Brahmchari Baba Satsang Samiti

हमारा हिन्दू, धर्म विश्व का सबसे प्राचीन धर्म है। इसे विश्व के सभी लोगों ने माना है एवं जाना है। हमारे हिन्दू धर्म में भगवान के विभिन्न स्वरूपों, अवतारों एवं देवी देवताओं का वर्णन है।